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माँ और सुरूज देव / दीपक जायसवाल

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इस सृष्टि के हर जीवन में
समाए सूर्य
मेरे पिता खुद का रोम-रोम
तुम्हारा कर्जदार मानते हैं
मेरी घोर आस्तिक मां की आँखें
तुम्हें कभी तारे की तरह नहीं
देख पायीं
तुम देव थे
तुम्हें रोज़ सुबह अर्घ देते वक्त
माथे का पल्लू थोड़ा खींच लेती थी
दुनिया की सारी खूबसूरती
हरियाली,रंग,खुशबू
कहाँ से आती है ?
चिड़िया,फूल,नदी,गिलहरी
गदहे और आदमी में जीवन?
मेरे बचपन के हर प्रश्न का उत्तर
करोड़ों मील दूर किसी तारे के
विखण्डन-संलयन-विखण्डन
और विस्फोट में छिपा था
मेरे आँगन में विज्ञान
माँ की आस्था के पीछे-पीछे
माँ का पल्लू पकड़कर आया था
इंसान ने देवता बनाया माना
पर उन्हें बनाए रखे हो तुम सुरुज देव
और मेरी माँ के ताबें का लोटेभर पानी