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माँ का अकेलापन / राकेश रेणु
Kavita Kosh से
केवल वसन्त नहीं
ॠतुचक्र गुज़रता रहा उसकी हथेलियों से होकर
जिन हथेलियों ने दुलारा-संवारा भाई-बहनों को मेरे साथ-साथ
गोरैया-सी उसकी हथेलियाँ
टँगी हैं बाहों की फैली कमाची पर
बिजूखे की तरह न जाने कब से
छूना चाहती हैं हथेलियाँ उन सबको
छूटते, दूर होते गए जो उनसे
अब रात-बेरात, दिन-दोपहर
भर उठता है बिजूखा अनिष्ट की आशंका
और अजीब-सी बेचैनी से
बिजूखा अकेलेपन से डरता है
माँ सुबह-सुबह बाबूजी को याद करती है
बिछड़ने की पीड़ा घनीभूत हो उठती है आल-औलादों की याद में
असीसती है सबको जागते-सोते
बिजूखा टटोलता-सहलाता है मेरा माथा
आधी रात, अल्लसुबह
माँ अकेलेपन से डरती है ।