माँ का दिल / सुरेन्द्र स्निग्ध
जब दो भाइयों में चलती हैं गोलियाँ
माँ का दिल छलनी होता है ।
समझ नहीं पा रही है माँ
आख़िर उसी की कोख के बेटे
क्यों कर रहे हैं
बन्दूकों और गोलियों की भाषा में बातें ?
यह भाषा तो मात्र
दुश्मनों को पढ़ाने के लिए है
बातें करने के लिए नहीं ।
लड़ने वाले दोनों भाई मेहनती हैं
दोनों भाइयों ने बनाई हैं
अपने ही हाथों
लोहे की बड़ी-बड़ी मीनारें
जिनके अन्दर देश का हो रहा नव-निर्माण
जिनकी गुम्बदों, टावरों और चिमनियों को
नितप्रातः चूमकर लाल सूरज
दे जाता है नई ऊर्जा
और दहाड़ती रहती हैं अनवरत
विशाल मशीनें ।
दोनों ने अपने ही
ख़ून और पसीने से
उर्वर बनाए हैं बंजर खेत
जिनमें उगती हैं
फ़सलों की लम्बी और सुनहली बालियाँ
जिनकी फुनगियों पर सूरज
सबेरे-सबेरे
बिखेर देता है
सपनों के अनगिन नन्हें ग्लोब ।
दोनों भाइयों ने
दुर्गम पहाड़ियों की फोड़कर छातियाँ
निकाली हैं नहरें
जोड़े हैं पुल
बनाई हैं सड़कें ।
ये टावर, ये चिमनियाँ, ये गुम्बद
और फ़सलों की जवान बालियाँ
नहीं समझती हैं बन्दूकों की भाषा
इस भाषा में तो
काँच के टुकड़ों की तरह
इनके अरमान चिनकते रहते हैं ।
सच कहता हूँ, मित्र !
कारख़ाने हों या पुल या लम्बी सड़कें
बड़े बान्ध हों या हरे-भरे खेत
जँगल हो या चट्टानी मैदान
जब कभी दो भाई
आपस में लड़ते हैं
इनके दिल छलनी हो जाते हैं
क्योंकि
यही सारी चीज़ें मिलकर
बनती हैं
एक मुकम्मल माँ ।
और
जब दो भाइयों में
चलती हैं गोलियाँ
माँ का दिल छलनी होता है ।