भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ के घर जाकर आती हूँ / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ के घर जाकर आती हूँ,
बहुत दिवस बीते
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी

घड़ी, चाभियाँ, मोजा, पर्स
रुमाल चिढ़ाएँगे
आँखमिचौली खेल-खेलकर
तुम्हें सताएँगे
कहीं नमक के धोखे में
चीनी ना पड़ जाये
यही सोचकर हर डिब्बे पर
लेबल चिपकाये
नहीं मिले सामान अगर
हैरान नहीं होना
मुझे लगाना कॉल प्रिये
मैं जानूँ हर कोना

मोबाइल पर मैं सारी
मुश्किल सुलझाऊँगी
तुलसी में जल और साँझ को
दीपक धर आना
शीशे पर चिपकी बिंदिया से
कुछ पल बतियाना
स्वर्णिम यादों की एल्बम
को यूँ ही दुहराना
‘दूरी लाती पास’ यही
तुम मन को समझाना
खिड़की, आँगन, दीवारें
होंगे गुमसुम सारे
बातों के मौसम लेकर
फिर आऊँगी प्यारे!

अधिक दिनों तक दूर नहीं
मैं भी रह पाऊँगी