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माँ के नाम एक पत्र / सिर्गेय येसेनिन / वरयाम सिंह

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तू अभी ज़िन्दा है, ओ मेरी बूढ़ी माँ ?
ज़िन्दा हूँ मैं भी । प्रणाम तुझे प्रणाम !
तेरी झोंपड़ी के ऊपर सदा चमकता रहे
साँझ का सुन्दर सुखद आलोक !

गाँव वालों ने लिखा है तू अपनी चिन्ताओं में खोई
बहुत उदास रहती है मेरे लिए,
कि अक्‍सर निकल आती है बाहर रास्‍ते पर
पुराने फ़ैशन का जर्जर चोगा पहने !

साँझ के नीले धुँधलके में तुझे
दिखता हे बस एक ही दृश्‍य
जैसे शराबख़ाने के झगड़े में
मेरे दिल में किसी ने घोंप दिया है चाकू ।

माँ, शान्त रह, ऐसा कुछ नहीं होगा,
यह बस तकलीफ़ देह बड़बड़ाहट है
मैं ऐसा पियक्कड़ नहीं
कि मर जाऊँ तुझे देखे बिना ।

मैं पहले की तरह उतना ही नाज़ुक हूँ,
बस, एक ही सपना रहा है मेरा
कि जल्‍द-से-जल्‍द इस बोझिल अवसाद से
लौट सकूँ गाँव, अपने छोटे-से घर ।

मैं लौट आऊँगा जब हमारा बग़ीचा
बहार की तरह फैलाएगा शाखाएँ
बस, तू जगाना नहीं सुबह-सुबह
जगाया करती थी जैसे आठ बरस पहले ।

जगाना नहीं जिसके सपने देखे थे,
याद न दिलाना जिसे हासिल नहीं कर सके !
सहन करने पड़े है ज़िन्दगी में समय से पहले
थकान और नुकसान तरह-तरह के ।

सिखाना नहीं प्रार्थना करना ! इसकी ज़रूरत नहीं ।
वापिस पुराने की तरफ़ जाने का कोई रास्‍ता नहीं ।
सुख और सहारे का तू अकेली है स्‍त्रोत
तू अकेली है मेरे लिए वह सुखद आलोक ।

भूल जा तू अपनी सब चिन्ताएँ,
इतनी उदास न हुआ कर तू मेरे लिए !
इतना अक्‍सर निकला न कर सड़क पर
पुराने फ़ैशन का जर्जर चोगा पहने ।