माँ के बिना पिता की एक शाम / विनोद विट्ठल
किसी एक रँग की कमी
या बिना झूलों के मेले की-सी स्थिति है यहाँ माँ
इस समय, जबकि दूज के इस एक ही चान्द को देखते
तुम हज़ारों मील दूर हो
गोया तुम माँ नहीं, चान्द हो घर की परात में हिलती, दिखती, हुड़काती
पिता अगर कविता लिखते तो ऐसी ही कुछ :
तुम्हारे बिना आधी है
रोटी की हंसी
नमक की मुस्कान
दरवाजों की प्रतीक्षा
सब-कुछ आधा है
मसलन चान्द, रात, सपने
सिरहाने का तकिया
पीठ की खाज
दाढ़ का दर्द
आज की कमाई
मुझे नहीं पता
तुम्हारे होने से
ज़िन्दगी की रस्सी पर नट की तरह नाचते पिता
तुम्हारा नहीं होना किसे कहते हैं
रात से, परीण्डे से, या तुम्हारी तम्बाकू की ख़ाली डिब्बी से
तुम्हारा वह नाम लेते हुए
जो मैंने कभी नहीं सुना
तुम्हें उस रूप में याद करते हुए
जब तुम पल्लू से वहीदा रहमान और हंसी से मधुबाला लगती थीं
और पिता, दादी से छिपाकर चमेली का गज़रा
आधी रात तुम्हारे बालों में रोपते थे
और थोड़े समय के लिए चान्द गुम हो जाता था ।
माँ; चौतरी जिस पर तुम बैठती हो
उदास है ।
घर के बुलावे पर भगवान् भी चले आते हैं
चली आओ तुम
नहीं तो, पिता की डायरी में एक मौसम कम हो जाएगा ।