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माँ - 2 / कविता कानन / रंजना वर्मा

प्राणान्तक वेदना
सह कर
जन्म देती हुई
नन्हे शिशु को
अपना रक्त पिला कर
पालती हुई माँ
बच्चे की
एक पुकार पर
दौड़ती हुई
सन्तान को
पढ़ाती हुई
स्वयं भूखी रहकर भी
शिशु को
खिलाती हुई
उसके घावों पर
मरहम लगाती हुई
उसे भर पेट खिला कर
खुद घूँट भर
पानी पी कर
बर्तन समेटती हुई
उसके सुखद भविष्य के
सपने सहेजती हुई
अपने अभावों की
उपेक्षा करती हुई
अपनी पीड़ा को
छिपा कर
मुस्कुराती हुई
पुत्र के सेहरे की
लड़ियाँ सजाती हुई
बेटी को डोली में
विदा करती हुई
पुत्र के प्रवास पर
अपना दुख भुला
आशीष लुटाती हुई
घर के कोने कोने को
जगाती हुई
अपने कोमल
एहसास से
और अंत मे
झुर्रियों भरे चेहरे पर
अनुभव की लकीरें लिये
द्वार की ओर
टकटकी लगाये
प्रतीक्षा करती हुई
प्रवासी पुत्र के
आगमन की।
कितने रूप हैं
माँ के।
संतोष की
साकार मूर्ति
प्रतिदान की
अपेक्षा किये बिना
सर्वस्व
लुटा देने वाली माँ
तुम्हारी कोई
समता नहीं
तुम्हारे जैसी
किसी मे भी
ममता नहीं
क्योंकि
तुम माँ हो
केवल माँ
जननी
यही है
तुम्हारा परिचय।