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माँ / कुलदीप सिंह भाटी
Kavita Kosh से
खिड़कियों की खिलखिलाहट
कमरों की किस्सागोई
गलियारों की गलबहियाँ
बरामदे का बातूनीपन
दर औ' दीवार का दीवानापन
पर्दों का प्राकट्य प्रेम
रसोई का रस-माधुर्य
छतों की सतरंगी छटा
अपनत्व का अप्रतिम आँगन।
मेरे घर-बार का एक भी हिस्सा
नहीं लगता है, कुछ भी ख़ास
जब लगती है मेरी माँ उदास।