माँ / शोभनाथ शुक्ल
(एक)
दिन, महीने, साल
गुजर गये/पर
अभी भी/कहाँ लगता है
माँ का हमारे
बीच से चले जाना
सच नहीं लगता है
अभी भी
अचानक ही हुआ था
यह सब
नित्य की तरह/आज भी
उठना, नहाना, धोना
और चाय पीना
सब कुछ चला था
नित्य की तरह/आज भी
वे कहाँ तैयार थीं
जाने के लिए खुदभी.........।
क्षण भर भी नहीं लगा होगा
लुढ़क गई
बैठे-बैठे
बिना सहारा लिए
किसी का...........
जीते जी भी नहीं
चाहा/सहारा लेना कभी भी
किसी का..........।
प्राणपखेरू का उड़ना
कहीं किसी ने
देखा है भला...........?
घर में घुसते ही
एक छाया सी चलती
नजर आती है/हमें
ममत्व की बयार बहाती हुई
माँ
अभी भी/घर के इस छोर से
उस छोर तक
सब कुछ जाँचती-परखती
डोलती सी महसूस
होती है/हमें..................।
किसी एक के
चले जाने से
कहाँ क्या रूका है ?
सब कुछ/चलता रहता है
वैसे का वैसे ।
संसार और समय भागता है
अपनी गति से
आपाधापी में लाख
धुँधली हो जाती हों यादंे
पर क्या कभी
भूल पाता है कोई
माँ का
क्षणभर के लिए
माँ का
बीच से चले जाना................।
उनके प्रति
अपने भले-बुरे बरताव का
भूल जाना
क्या कभी सम्भव है भला ?
अचानक
छोड़ साथ जाना
दूर-बहुत दूर/उनका
कितना वे चैन करता है/कभी-कभी
दूर-बहुत दूर/उनका
कितना वेचैन करता है/कभी-कभी
काल
शायद जरूरत से भी
ज्यादा होता है
क्रूर..........बहुत क्रूर ...........।
(दो)
माँ का आँचल
धरती बन जाता है
बच्चे के लिए
नरक झेल-झेल
स्वर्ग का निर्माण करती है
वह हमेशा/उसके लिए
धरती और माँ
अपने विस्तार में
अपनत्व देती है सभी को
बदले में
ठ़गी जाती है अपनों से
बार-बार
पर माँ इसी तरह
धरती बन जाती है
सोख लेती है पानी
और बरस जाती है
भाप की बदली बन
सबको तृप्ति करती है।
वह लाला-पटवारी
तो कभी दरोगा बाबू
बनाना चाहती है/बच्चे को
इससे बड़े पद की
कहाँ सोच पाती है बात
काश/उसे पता होता
तो माँगती दुआ।
ऊँचें से ऊँचें पद के लिए।
माँ
कभी पहाड़ सी कठोर
तो कभी
गंगा की भीगी रेत सी
नरम लगती है
मन में अथाह
दुःख समेटे-समेटे
खुद में
सागर की विस्तार भी दिखती है.........। माँ
पराई जरूरतों पर
अचानक
वट वृक्ष की छाया सी
शीतल हो जाती है
जिस छाँव में
जाने कितनों को
तपन से तृप्ति मिलती है.............।।
माँ
इसी तरह जीती है
रोज-‘रोज
अपनों के लिए.............
परायों के लिए ........
हम सब के लिए...............।।
(तीन)
लटकती खालांे में
सूखी हड्डियाँ अब भी तनी हैं
काम पर
रोटियाँ सेंकती है
गोल-गोल
महकती है/स्वाद से भर जाता है
घर/पूरा का पूरा
पसीने से तर-बतर
माँ
परोसती है थाली
काँपते हाथों से
अपने बच्चों को
अलग से डाल देती है
घी का लोंदा दाल में
पूरा का पूरा
चम्मच गिरा देती है
थाल में..........
औरों पर विश्वास
जम नहीं पाता/उसका..........
बहू पर भी............
खाने में कोई
समझौता नहीं कर
पाती वह.......................।
पर और जगह
विश्वास करती है खूब-खूब
अपनों पर/सब पर....................।
उसे लगता है
विश्वास टूट गया
आदमी-आदमी के बीच
तो क्या बचेगा
आदमी फिर क्या रचेगा.........?
कुछ नहीं........कुछ भी नहीं।
बच्चों से एक-एक
गिनाती है/व्यंजनों की सूची
विस्तार से/पूरी व्याख्या के साथ
कचौड़ी उरद की, या आलू भरी पूड़ी
बरिया, पकौड़ी या कि रिकबंछ की कढ़ी
सैंईधा की लपेटन में
पूरी कला दिखाती है माँ
महुआ की लप्सी, बरिया या ढ़ोकवा मकई/ज्वार-बाजरा की
मोटी-मोटी रोटियाँ
या साग-भात
दूध/दही या छाछ भात
कोरवर, भुजिया और दही बड़ा
में रम जाती थी
माँ
पूरी की पूरी...............।
महक उठती थी/उनकी
उपस्थिति से ही रसोई
गमक उठती थी...........।
रसोई/उनके लिए
देवस्थली से कभी कम नहीं रही
रसोई में ही खाती
सफाई में चाक-चौबन्द रहती थी
माँ/हमेशा-हमेशा
पूजती थी अन्न को
अगराशन निकाल/खिलाती थी
गाय को/कौवे को
रसोई को रोज-रोज........
पूजती थी माँ...............।
इसके बाद
कोई शौक नहीं रहा
पूजा का कभी/उन्हें.............।
माँ/सजग प्रहरी थी
रसोईं की
उसके अस्तित्व की रक्षक थी/माँ...........।।
कंजूसी भी दिखती थी
कभी-कभी उनमें
झुझँला जाती थीं
अनाप-सनाप खर्च पर
बेवजह
नाकारा लोगों की मदद में
कभी कोई रूचि
नहीं रही उनकी...........।
चाहे भिखारी ही क्यों न हो ........।
लाग-लपेट से दूर
साफ-साफ बोल देती
अच्छा लगे या बुरा
कभी चिन्ता नहीं रही उनकी.............।
वे बिछ जाती थी
हमेशा/दूसरों के हित में
अपना एकाकी दुःख
पीते हुए.....................
सबके लिए.........।।
(चार)
मुझे याद है
उनका बिरवे रोपना
बरसात के मौसम में
रोज-रोज देखना
सींचना-निराना
पेड़ों की टहनियाँ
छूँ-छूँ कर उनका
गद्गद हो जाना
मुझे याद है/अब भी...............।
मैं सोचता हूँ
कौन सी अदम्य प्यास रही होगी
उनकी
इन बिरवों के पीछे
इनके लहलहाने तक
माँ ने/जाने कितने लम्हें ,
दिन-महीने-बरस
होम कर दिया है।
अपनी जिन्दगी के..................।
कुछ न कुछ/करते रहना
एक खास हिस्सा था
उनके स्वभाव का........
सिल-सिल कर
खुद पहनती रहीं/कपड़े
देखती रही खेत-जवार
तोड़ती रही मटर की फलियाँ
खोटती रहीं
चना और सरसों का साग
भूनती रही हरा चना
खिलाती रही ...........
ध्यान रखती रहीं सबका..............।
आम में लगते ही टिकोरे
आ जाते थे उनकी सिल-बट्टे के नीचे
पिस उठते थे पुदीने के साथ
चटनी बन......................।
श्रम के प्रति/इतनी गहरी आस्था
सोच-सोच कर अब
हैरानी होती है हमें............।
दऊरी, मौनी, बेना और मोरपंखी
बनाती रहीं
जाने कितनी-कितनी
डिजाईनों में
रंग भरती रहीं
जिन्दगी में दूसरों के..............।
और खुद
भागती रहीं
हमेशा-हमेशा
इससे दूर-दूर.................।
माँ को पहचान पाना
बहुत कठिन होता है
एक बच्चे के लिए
जो खुदगर्ज होता है
उसके लिए तो/और भी
कठिन होता
बहुत-बहुत कठिन होता है
ऐसे बच्चों के लिए
माँ को जानना..........।
माँ
फिर भी भला ही सोचती है
बच्चा
आवारा निकल जाय
फिर भी.........।।
(पाँच)
मैं कभी-कभी
झँुझला जाता था
माँ की हरकतों पर
क्यों नहीं छोड़ पाती थीं
इन्हंे
औरों के लिए
हम सबके लिए........।
भला हो सकता है
एक परिवार का
इतने भर से..............।
बहू चाहती थी/साथ रहें
सुख-सुविधाओें के बीच
पर/शहर में रहते
गाँव-घर नहीं भूल पाईं कभी
ऊब जाती थी जब कभी
निकल जाती थी गाँव
खेत-खलिहान की, पेड़-बाग की,
घर-जबार की/पता लगा लेती थीं
हाल चाल सबकी/ एक साथ
परजा-पवन की , पंडित -पुरोहित की तीज-त्यौहार में
होली-दिवाली की
खुशियाँ बाँटती
अपने साथ कंजूसी भी करती
पर उत्साह के साथ..............।
मार खाई औरतों की
वकालत करतीं
विदा होती लड़कियों के
आँसू पोंछती......
जमीन से जुड़ी थी
हकीकत में........
बहुत-बहुत महान थी
अपनी अकीदत में...................।
पर मैं देखता हूँ
बनाये आदर्श को
तोड पाना/कितना कठिन होता है।
संस्कार और नैतिकता
की चढ़ते-चढ़ते सीढ़ियाँ
बँध जाती है/उसकी हर साँस से
उनकी चाल से/गति से
उसे तेज/या धीमा कर पाना
अब बहुत कठिन है
उनकी जड़ से/उन्हें/बड़ा मुश्किल था अलग कर पाना....................
उनकी करनी और कथनी में
अन्तर बहुत कम ही रहा है
शायद इसी लिए.................।
परम्परा का निर्वाह
भी जरूरी होता है
आदमी के लिए...............।
मैं/महसूसता हूँ
माँ
आती है रोज
स्वप्न में नहीं, जागती आँखों में
निहारती है एकटक
‘बहू ठीक से
देखभाल नहीं कर रही होगी
शायद
तेरे कमजोर होने का
क्या कारण हो सकता है भला ?
बुदबुदाती है............।
उठा कर हाथ
फेरती है/गाल
चूम कर माथा/
गायब हो जाती है आश्वस्त करती,
आह भरती हुई ..........।
मैं/स माँ/अच्छी थी या बुरी
पर इतना जानता हूँ
वह जो भी थी
गुणों-अवगुणों के बीच
सम्पूर्णता में
वह छाया थी,
बदली थी/ धूप के खिलाफ
रोशनी थी/ चाँद थी
अँधेरे के खिलाफ
माँ
घर में/घर के लिए
आश्वस्ति भाव भी/डर के खि़लाफ
श्रम और संघर्ष की
अद्भुत मिसाल थीं/
आलस्य और कायरता के खिलाफ
एक जंग थीे
एक संस्था थी
सम्बल थी/किसी भी कमजोरी के
खि़लाफ
माँ
इसी तरह
ईकाई थीं.............
दहाई थीं...............
सैकड़ा थीं..............
हजार..................।