भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / सुरंगमा यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ है तो घर हँसता
माँ से ही घर में व्यवस्था
उसकी ममता भरी छुअन
हरती मन की हरेक तपन
माँ की आँखों से बहता
ममता का अविरल सोता
माँ के बिन खाली-खाली
घर भी रह -रह के रोता
माँ सहती है हर नखरा
माँ से ही जीवन निखरा
माँ मंगल रोज मनाती
मुझे अपनी उमर लगाती
जब डरती अंधकार से
माँ कहती बड़े प्यार से
 तू ऐसे क्यों घबराई
तू तो है लक्ष्मीबाई
माँ का आँचल मनभाया
हर दुःख में देता छाया
हँसती माँ फरमाइश पर
पूरा करने को तत्पर
माँ का मन नवनीत नवल
क्षण भर में जाए पिघल
माँ नहीं तो कहे कोई न
आओ, सुस्ताओ बैठो न
बालों में उंगली की थिरकन
अब दूर करेगा कौन थकन!
आशीषों से माँ भरती
जीवन में सुख-समृद्धि
अपनी खुशियों से बेपरवाह
सबकी खुशियों की परवाह
अपना दुःख कभी न कहती
औरों का बिन कहे समझती
'माँ' शब्द एक मनभाया
जिसमें ब्रह्माण्ड समाया
उसकी ममता पाने को
खुद ईश जगत में आया
माँ जीवन की किलकारी
उसकी महिमा है न्यारी
जो माँ का मान नहीं करते
वे भाग्यहीन बनके रहते
माँ की सेवा से विरत रहें
अपनी दुनिया में खोये रहें
वे क्या हैं,क्या होंगे जाने
उनकी करनी विधना जाने।