मांग भरे सुहागिनों की भीड़ / महेश सन्तोषी
अभावों से भरे घर में
छतें छूकर ही रह गयीं
सपनों की सरहदें
पर हम हाथांे से नहीं छुपा सके
अपना भरा-भरा शरीर,
भूख की खाइयों में सिमट कर रह गयीं
मन की उमंगों की हदें, अंगों की पीर।
देखते-देखते थक गयीं आँखें
रोज के राशन की व्यवस्थाएँ
पर हमसे अनदेखे भी नहीं रह पाते
अपने ही अंग हम तो पोछ तक नहीं पाते
दोपहरी में पसीने से लथपथ तन
हमारा भी मन था
कभी उड़ते सांझ-सुबह
हवाओं के संग
दूर तक कहीं नहीं दिखते
सिंदूर से रंगे
सुहाग के क्षितिज
पर हमारे सामने से रोज गुजरती तो है
मंाग भरे सुहागनों की भीड़
भूख की खाइयों में सिमट कर रह गयीं
मन की उमंगों की हदें, अंगों की पीर,
फूलों की बस्तियों में हो या झोपड़ियों में
देह तो समय पर खिलती ही है
चढ़ती उम्र में बहारें अभी
गरीबों से कतरकर नहीं जातीं
हमें लगता तो है अपनी उभरी हुई देह पर
फूलों जैसा कुछ दबाव
ऐसा कैसे होता कि बहार आती और
देह में बजती बांसुरिया
हमसे अनसुनी ही रह जाती
डरते हैं कहीं कोई छीन न ले
हमारे हिस्से का गुलाल, हल्दी
मेंहदी, सुहाग की बिन्दी
कहीं कोई खरीद ना ले
हमारे हिस्से का अबीर
भूख की खाइयों में सिमट कर रह गयीं
मन की उमंगों की हदें, अंगों की पीर।