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माचिस की काड़ी / सुकान्त भट्टाचार्य

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मै हूँ एक छोटी-सी माचिस की काड़ी इतनी नगण्य, शायद नज़र ही न आती होऊँ;
फिर भी जान लो
मुँह में मेरे चुभ रहा है बारूद ——
सीने में मेरे जल रहा उठने को तैयार तेज़ उच्छ्वास;
मै हूँ एक माचिस की काड़ी ।

याद है उस दिन कितना हैरान परेशान हो उठे थे सब ?
जब घर के कोने में ही जल उठी थी आग ————
मुझे उपेक्षा से न बुझा कर दूर फैंक दिया गया था इसलिए !
कितने ही घरों को जलाकर राख किया,
कितने ही प्रासादों [महलों] को किया है धुलिसात
मैंने अकेले ही —– मै एक छोटी सी माचिस की काड़ी ।

वैसे ही अनेक नगर, अनेक राज्यों को कर सकता हूँ तहस-नहस
तब भी क्या अवज्ञा से देखोगे हमें ?
याद नहीं ? उस दिन ————-
हम जल उठे थे एक संग एक ही डिब्बे में;
घबड़ा गए थे ————
हमने सुना था तुम्हारे विवर्ण मुख का आर्तनाद ।

हम लोगों की जो असीम शक्ति है
उसे तो अनुभव किया होगा बारम्बार;
फिर भी क्यूँ नहीं समझ पाते,
हम नहीं रहेंगी बन्दी तुम लोगों के पैकटों में
हम निकल पड़ेंगी, हम बिखर जाएँगी
शहरों, कस्बों, गाँवों ———– और दिगन्त से दिगन्त ।
हम बार–बार जलती हैं, नितान्त अवहेलना में ——-
वह तो तुम सब जानते ही हो !
किन्तु तुम लोग नहीं जान पाते :
कब हम जल उठेंगी ———-
एक संग सब ———- आखिरी बार ।

मूल बंगला से अनुवाद : मीता दास