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माचिस की तीलियाँ / आनंद खत्री
Kavita Kosh से
बुझी हुई माचिस
की तीलियों की तरह
हम निढाल पढ़े हुए थे
सिरहाने पे।
सर की आग
पूरे जिस्म को
न जला पाई थी
मेरे गलने में अभी
एक सदी बाकी थी।
कुछ सूझता नहीं
क्यों काठ की तीली
इतनी लम्बी बनायी थी।
वो मसाला जो
तिल-सा कोने में चपका
क्या वही पहचान बनायी थी?
कुछ ताज़ा तीलियों को
देख के उस आग का
अंदाज़ महसूस होता है
जो कभी
हमारे सर भी थी।