भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

धूल भरी सन्ध्या तो फूल भरे प्रात हैं
शीश डेढ़ करोड़ दीनबन्धु के हाथ हैं
सुन्दर चरित्र-चित्र धरती पवित्र है
चिह्न बन न पाए जहाँ पापी के पाँव के
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

जनम से फटी है यहाँ पैर वो बिवाई,
राम को सम जानत हैं पीर हम पराई।
सुख से हैं दूर और श्रम से चूर-चूर हम
तन हैं रंगे सबके भैया, सूरज की घाम से
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के कण-कण में अपना इतिहास है,
फूस की मड़ैया, दिया माटी का पास है।
सागर के सीप हम, महलों के दीप हम,
हम हैं बैठैया भैया, बरगद की छाँव के
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

बादल के सँग फिर अँकुर की आशा,
मीठी लगी अम्बर को अवनि की भाषा।
धरती-सी गोरी, बादल-सी रसिया,
मिल-जुलकर गीत लिखे फ़सलों के नाम के
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

गोरे-गोरे गात-गात गीत जहाँ गोरी,
अमुवा के डार पड़ी रेशम की डोरी।
प्रियतम की पाती के कौन पढ़े आखर,
समझत हैं अर्थ गोरी कागा की काँव के
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2

माटी के लाल हम, भारत के भाल हम
हम हैं रहवैया भैया गाँव के — 2