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माता, पिता, देव, गुरु, गुरुजन, गौ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग परज-ताल कहरवा)
 
माता, पिता, देव, गुरु, गुरुजन, गौ, द्विज, रुग्ण, आर्त अति दीन-
पशु, पक्षी, तिर्यक्‌, प्राणी सब शुचि सुन्दर या अशुचि मलीन॥
सेवा जो करता सबकी श्रद्धा-युत, करता निर्भय दान।
भगवद्भाव भरे अन्तरसे सुख पहुँचाता, ईश्वर जान॥
दुर्व्यवहार न करता कभी किसीसे, देता सबको मान।
इन्द्रिय जयी, चित-जयकारी, पर-धन जिसके धूलि-समान॥
रक्षा करता पर-हितकी नित, सदा बचाता पर-‌अधिकार।
मंगल-कुशल बाँटता सबको, मंगल-रूप स्वयं साकार॥
निज-सुख-वाञ्छा परित्याग कर, पर-सुखको ही निज सुख मान।
पर-हितार्थ कर सर्व-समर्पण, परम सुखी होता मतिमान॥
पतित, उपेक्षित, अपमानितको जो मनसे आदर देता।
तन-मन-धन देकर, बदलेमें उनका कष्ट-दुःख लेता॥
करता नित्य पड़ोसीका हित, निज सुख देकर दुख हरता।
दुष्ट -संग कर त्याग, सदा शुभ संग संत-जनका करता॥
वर्ण-जाति-कुल-गृह-कुटुंब-सबका विधिवत्‌‌ पालन करता।
पर कर त्याग मोह-ममताका, जीवनमें समता भरता॥
ब्राह्माण, श्वपच, श्वान, गौ, गजमें सदा देखता ब्रह्मा समान।
करता सब व्यवहार सविधि, अनिवार्य भेदको हितकर जान॥
रहता नित कर्तव्य परायण, शास्त्र-संत-मतके अनुसार।
होता कभी नहीं उच्छृङखल, करता कभी न स्वेच्छाचार॥
सब कुछ वैध उचित ही करता, करता नहीं कभी अभिमान।
सबका एक परम फल ‘भगवत्‌‌-प्रीति’ चाहता अमल महान॥
सर्वकाल जो चिन्तन करता प्रभुके पावन गुण-गण, नाम।
कर मन-बुद्धि-समर्पण, जो प्रभु-पदमें करता प्रेम अकाम॥
ऐसे मानवसे रहता अति दूर सदा दुर्मति-दानव।
ऐसा मानव ही ‘जग-भूषण’ कहलाता ‘सच्चा मानव’॥