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माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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भूमि, तेरे विनत वन्दन में हमारे शब्द,
जगमगाते मुकुट पहनें लाल-मणि के भव्य।
हृदय हर्षित हों, तरंगित हों प्रफुल्ल नवीन
मधुर हो वाणी शहद-सी, किरण-सी रंगीन।

शैल-शृंग किरीट, सिन्धु-तरंग तेरा हार,
नील गगन वितान, गहन अरण्य तोरणद्वार।
वसन नव पल्लव, विटप उत्फुल्ल वन्दनवार,
स्वयं ही है तू महत, स्वयं निज आधार।

भुवनधात्री वन्दना हे सुमनसा, सुकुमार,
अन्नदा हे प्राणदा, धनदा हिरण्यागार।
वन्दना है सौरभेयी, शरणदा, निष्काम,
अग्रगन्धा वन्दना है शोभने अभिराम।

काल का है उदय तुझमें, विलय तुझमें अस्त,
सृष्टि का है आदि तुझमें, मध्य तुझमें अन्त।
प्राणमय जितना अमित पीयूष तेरे पास,
कहाँ उतना ताप जग में कहाँ उतनी प्यास?
आदिअन्त असीम तेरी परिधि में रंगीन,
दीखते मिलते पुरातन और अर्वाचीन।
शेष बचता नहीं तुझसे भिन्न कोई चिह्न,
कौन है ऐसा न जो तेरा कृतज्ञ अभिन्न?

गहन तेरे अंक में संचित अनन्त सुवर्ण,
चमकते वैदूर्य, पन्ने, जड़े नीलम रत्न।
मिले तुझसे ही उदधि को मोतियों के कोष,
धूल को कंचन, सुगन्ध प्रसून को निर्दोष।

पहन कर तू चीर रत्नजड़ाव झालरदार,
किरमिजी, तूसी, तुरन्जी, जमुर्दी, गुलनार।
लिखे जिनमें बोलते तोते, पपीहे, मोर,
मोह लेती है भुवन को खींच अपनी ओर।

कहीं तेरे हृदयतल पर सुबुकवदन उक़ाब,
खड़े चौकन्ने, विचरते सुनहरे सुरख़ाब।
आम्र-उपवन में कहीं गाते प्रभाती कीर,
बसन्ते उड़ते चले जाते गगन को चीर।

सिन्धु-तल में उगे पोदीने, कुसुम के झाड़,
हरे, नीले, श्वेत एनीमोन चन्द्राकार।
वनों में वनकिन्नरी सरि-ऊर्मियों-सी झूम,
नाचती दे वृत्त में झूमर, मचाती धूम।
घाँघर कटि में पहन चितरंग केसरबोर,
बाहुओं में कंगने गजदन्त के अनमोल।

स्वर्णक्षीरी कहीं चम्पागाछ, नवल रसाल,
दमदमाते लालिमा से सेब, श्याम तमाल।
चीड़ के कानन कहीं केसर सुवर्ण-समान,
और चम्पकबालवाले कनकजीरी धान।

हर तरफ मणिदीप जलते रंगदार प्रबाल,
यह खिली है ओसपर्णी, वह भरण्डा लाल।
हर तरफ है मोहिनी मुस्कान-ही-मुस्कान,
दूधिया यह सावनी, वह हरजुरी छविमान।

कहीं फूले हुए सिरस, कर´्ज काँटेदार,
खड़े बाँध कतार अर्जुन, देवदारु, चिनार।
वरद दिग्गजपुत्र नगपति के दिगन्तप्रसार,
रम्यपल्लव शाल उन्नत स्कन्ध वृहदाकारं

दिव्यदर्शन भोजपत्रों के वसन में भव्य,
लहलहाते धूप-चन्दन के विपिन में रम्य।
गन्ध जो तेरी बसी है कमल में अम्लान,
मुझे भी उस संदली मधुगन्ध का दे दान।

सुरँग तेरे स्वर्ण चीतल, शरभ, शूकर, शेर,
फणोंवाले सर्प मणिधर और पौधे पेड़।
हों हमारे लिए सब प्रिय, आत्मीय, प्रणम्य,
क्षेमकर, मंगल्य, सहृदय ओर मित्र अनन्य।

एक ही सुर में बँधे हैं विविध मन के तार,
विविध छन्दों में ध्वनित हैं एक ही उद्गार।
एक ही सबके लिए हैं अयन, ऋतु, दिन, मास,
एक ही हैं क्षितिज, अम्बर, अनिल, सलिल, प्रकाश।

हम चलें सब संग-संग स्वतन्त्र एक समान,
मुक्त हों हम सब प्रसन्न, समान क्षुद्र-महान।
हों हमारे मन समान, विधान-नीति समान,
हों विचार समान, हृदय समान, मिलन समान।

(‘विशालभारत’, मई, 1950)