मातॄवंदना-1 / सत्यनारायण ‘कविरत्न’
सब मिलि पूजिय भारत-माई।
भुवि विश्रुत, सदवीर-प्रसूता, सरल सदय सुखदाई।।
बाकी निर्मल कीर्ति कौमुदी, छिटकी चहुँ दिशि छाई।
कलित केन्द्र आरज-निवास की, वेद पुरानन गाई।।
आर्य-अनार्य सरस चाखत जिह, प्रेम भाव रुचिराई।
अस जननी पूजन हित धावहु, वेला जनि कढ़ि जाई।।
सुभट सपूत, अकूत साहसी, आरजपूत कहाई।
मातृभक्त सुप्रसिद्ध जगत मधि, प्रिय प्रताप प्रकटाई।।
क्यों न जगत अब वीर केसरी, बैठे अस अलसाई।
ऐक्य नखन सों द्रोह-गयन्दहि भल विदारि रिसियाई।।
चकित भयाकुल भारत-भुवि की, नासि सकल दुचिताई।
विरचि आत्म-अवलम्बन-आसन माँ को तहँ पधराई।।
साजि स्वधर्म मुकुट तिह सिर पर दृढ़ता चौंर डुलाई।
ईश-भक्ति की छत्र-छाँह करि, तजि निज कुमति कमाई।।
विजय वैजयन्ती गर डारहु, प्रेम प्रसून गुहाई।
अनुभव अमल आरती कीजै, मंजुल हिय हरखाई।।
प्रिय-स्वदेश व्यापार अर्ध-जल, सिंचन करहु बनाई।
जयहु मुदित मन सत्यमंत्र 'वन्दे मातरम' सुहाई।।
रचनाकाल : 1918