माथे की बिंदी
सजा रहे हो, तो फिर इसको ऐसे मत बिसराइये-
माँ के माथे की बिन्दी है, हिन्दी को अपनाइये।।
अपने आँगन में बिखरी है, केशर धोई चाँदनी,
उत्तर से ले कर दक्षिण तक, बहती है मन्दाकिनी।
ज्योति-पंथ पर स्वयं बहकते, शूल बिछाते जा रहे,
बाँहों वाले हो कर भी हम, माँग-माँग कर खा रहे।
अपनी सोई हुई संस्कृति को फिर से आज जगाइये।
छोड़ विदेशी भाषा, अपनी हिन्दी को अपनाइये।।1।।
भारत के सपूत क्यों भूले, अपनेपन की आन को,
भारी ठेस लग रही, अपने गौरव को, सम्मान को।
भाव तुम्हारा अभी वही है, थोड़ा सा मतभेद है-
तुम्हें 'बाइबिल', हमें कराता जीवन-दर्शन 'वेद' है।
सुना सको तो हमें सूर का, कोई राग सुनाइये।
मरुथल में बहती सरिता-सी हिन्दी को अपनाइये।।2।।
जिसका निश्चित नहीं व्याकरण, जो बिल्कुल स्वच्छन्द है,
तन पर पुता पराग, हृदय का कमल किन्तु निर्गन्ध है।
कब जाने, किस ओर मुड़ेंगे इसके पाँव पता नहीं,
नियम-हीन जीवन में गति हो; पर यह चेतनता नहीं।
अधवसना गोरी महिला को, कंगन मत पहनाइये।
रघुकुल-तिलक! सती-सीता सी हिन्दी को अपनाइये।।3।।