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मानवता / आरती 'लोकेश'
Kavita Kosh से
कैसी यह आँधी चली, कि मानवता बह गई,
अमानवीयता का दंश, कैसे मानवता सह गई,
हर आकृति तड़पती, आह सिसकती रह गई,
झिंझोड़ मानवपन को, मानव से क्या कह गई।
झिलमिल रोशनी नाच रही, कहीं दीए बुझ रहे,
छप्पन भोग फिंके कहीं, जूठी पत्तल छीन रहे,
आलीशान परिधान सजे, फटे चिथड़े ढक रहे,
महँगी मोटर न भाए कहीं, नंगे पाँव घिसट रहे,
विदेशी शिक्षा सिर चढ़े, अक्षर भी मूक पड़े,
अट्टाहस कोई लगाए, आँसू कहीं सूख पड़े,
मदिरा ताल में नहाए, पानी मुख न बूँद पड़े,
महल दुमहले रास रचाए, छप्पर भी टूट पड़े।
हाड़ वही माँस वही, मानव-मानव क्या अंतर,
लाल रक्त हृदय वही, दुर्गति का क्या है जंतर,
आँख मींच नेत्रहीन, स्वार्थ हित बाँध पट्टिका,
धृतराष्ट्र और गांधारी, बनी सर्वत्र है मानवता।