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मानवेतर होने का भ्रम / केदारनाथ अग्रवाल

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बाहर से विलग
भीतरी मैं,
सम्पर्कहीन
असम्पृक्त मैं-
अनात्म की अभिव्यक्ति
अगोचर
इकाई है,
जो न भव है
न अभव,
सिर्फ एहसास है
व्यक्त और
अव्यक्त के
बीच का;
इसीलिए
मानवेतर
होने का
भ्रम है।

रचनाकाल: १९-११-१९७४