भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मानवेतर होने का भ्रम / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
बाहर से विलग
भीतरी मैं,
सम्पर्कहीन
असम्पृक्त मैं-
अनात्म की अभिव्यक्ति
अगोचर
इकाई है,
जो न भव है
न अभव,
सिर्फ एहसास है
व्यक्त और
अव्यक्त के
बीच का;
इसीलिए
मानवेतर
होने का
भ्रम है।
रचनाकाल: १९-११-१९७४