मानव-बम और तीसरे आदमी की राजनीति / संजय कुमार सिंह
न बाप चाहता है
और न माँ जनती है
भूख के पेट में पलते हैं कुछ सपने
वही पैदा करते हैं बंदूक ।
दुःख का डायनामाइट
जब तोड़ता है आस्था का पहाड़
फैल जाती है धरती पर दूर तक बारूद
कोई ऐसे नहीं बनता है आदमी से बम
एक आख़िरी मौत मरने से पहले
उसे करना पड़ता है ज़िन्दगी का सबसे ख़ौफनाक करार
फिर बहुत आसानी से चिपकाए जाते हैं इश्तहार
जो उस आदमी के नहीं, बम के होते हैं
मानवाधिकार के सारे झूठे वायदों को याद करते हुए
यह कहना जरूरी लगता है
कि कानून व्यवस्था की बदचलन बीवी है
तो आज़ादी फ़िरकापरस्तों की रखैल
वह स्वयं किसी गरीब और मजलूम की
लुटी हुई आबरू है, जिससे चलती है उसकी दुकान
हज़ारों बेघरबारों / बेरोज़गारों के भविष्य का सवाल
हज़ारों डेटोनेटरों और बिजली के बेतरतीब नंगे तारों का
एक उलझा हुआ नक्शा है, जिसे आपस में बाँट रहे हैं कुछ बड़े लोग
भले ही पूरा हो किसी का मकसद
जब भी फटता है कोई मानव बम
मज़बूरी से लिथड़ा हुआ
आँसू और ख़ून में छितराया हुआ
होता है उसका अपना एक मकसद
इस बात से अनजान कि हजारों लोगों की भीड़ का
एक हिस्सा वह भी है, जिसके पास
एक घिसे वजूद के सिवा कुछ नहीं होता
बस एक जद्दोजहद होती है जीने की
चाहे आदमी मरें या मरे मानव बम
वह तीसरा आदमी हाथ में रिमोट लिए
होता है उनसे बहुत दूर ।