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मानसून / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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मुन्नी!
दरवाज़ा खटखटा रहा है कोई
सुनो तो!

हवा चल रही है बाहर
मानसून शुरू हुआ है

वो
समय का नया झोंका हो सकता है
या हो सकता है
तुम्हें वर्षा-उत्सव का निमन्त्रण देने के लिए
रंगीन छतरी लेकर खड़ी
तुम्हारी प्यारी सहेली

अभी ही सरहद में चरकर लौटा हुआ
उड़ानरत ज़ख्मी बगुला हो सकता है
पंख फड़फड़ाता हुआ
अन्तिम साँस ले रहा

वह छोटी-सी छेद से झाँक कर देखो तो
कोई तो होना ही चाहिए
दरवाज़े के बाहर

अक़सर
प्राप्ति से ज़्यादा त्रासदी लेकर आता है यह दरवाज़ा
तुम अभी छोटी हो बिटिया
अभी ही सभी बातें समझ नहीं सकती

बिजली चमक रही है
गर्जना पड़ रही है
आँधी चल रही है
और अवरुद्ध है टेलिफ़ोन
खिड़की के पल्लों को अच्छे से खिंचना पड़ेगा
ऐसे समय
दक्षिण मुख किंचित कमजोर दरवाज़ा
अपने आप भी खटखटा सकती है

संशय में हूँ
कुछ भी हो सकता है बाहर

आँखें भर नए-नए हथियार लेकर
क्यान्टोनमेंट से भागता आ रहा
भूतपूर्व छापमार हो सकता है
या सम्भावित अनिष्ट का संकेत करने के लिए
सदाशयपूर्वक आ पहुँचा पड़ोसी हो सकता है
अनुमान भी नहीं किया जा सकता
चोर, लुटेरा, सिपाही, पत्रकार या कोई भिखारी?

छोटे छोटे बच्चों को लेकर
कहीं दूर के लिए निकली हुई अकेली औरत?

सुखद समाचार का पुलिन्दा लेकर खड़ा
हँसमुख हल्कारा?

दरवाज़ा खटखटा रहा है कोर्इ
मुन्नी!
जो कोई भी हो सकता है बाहर
रुको,
मैं भी आ रही हूँ
सावधानीपूर्वक
धीरे से खोलना पड़ेगा
दरवाज़ा!