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माना आज पहरे नहीं हैं / सांवर दइया
Kavita Kosh से
माना आज पहरे नहीं हैं।
किसने कहा खतरे नहीं हैं!
चलने का तो बस दम भरते,
हक़ीक़त में ठहरे वहीं हैं।
चीख तक नहीं सुनते हैं जो,
बसते लोग बहरे यहीं हैं।
ख़बर तक न हो, कर दे हलाल,
लोग इतने गहरे कहीं हैं।
यह बदलाव, बदलाव कैसा,
लोग नये, पैंतरे वही हैं।