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माना मिट जाते हैं अक्षर, क़लम नहीं मिटता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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माना मिट जाते हैं अक्षर, क़लम नहीं मिटता।
मारो बम गोली या पत्थर क़लम नहीं मिटता।
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलता है,
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर क़लम नहीं मिटता।
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन,
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर क़लम नहीं मिटता।
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं,
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर क़लम नहीं मिटता।
जब से कलम हुआ पैदा सबने ये देखा है,
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर क़लम नहीं मिटता।