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मानूस हो चुके हैं तेरे आस्ताँ से हम / 'नसीम' शाहजहांपुरी

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मानूस हो चुके हैं तेरे आस्ताँ से हम
अब ज़िंदगी बदल के उठेंगे यहाँ से हम

तंहाइयाँ दिलों की भला किस तरह मिटें
कुछ अजनबी से आप हैं कुछ बद-गुमाँ से हम

अब आलम-ए-सुकूत ही रूदाद-ए-इश्‍क है
कुछ अर्ज़-ए-हाल कर नहीं सकते जबाँ से हम

है राज़-ए-बहर-ए-इश्‍क अजब हैरत-आफरीं
ये देखना है डूब के उभरें कहाँ से हम

बर्बाद बार बार नशेमन हुआ मगर
गाफ़िल हैं आज तक निगह-ए-बाग़-बाँ से हम

मिलता किसी नज़र का सहारा अगर हमें
थकते न यूँ हयात के बार-ए-गिराँ से हम

हासिल हुआ वो लुत़्फ असीरी में ऐ ‘नसीम’
ता उम्र बे-नियाज रहे आशियाँ से हम