भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माया श्रृंखला-१०/रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


१- आधुनिक ये अप्सराएं,
विचरण करें स्वछंद हैं।
तन के कपड़े घट रहे,
अरु आचरण निर्बंध है॥

२- माया के दलदल में जो,
एक बार गिर जाता है।
गुड़ की मक्खी की तरह,
उसमें ही वह मर जाता है॥
 
३- कैसी है विडम्बना माताओं की,
शिशुओं को भी देती हैं बेंच।
इक जेहाद के नाम पर,
दिल के टुकड़े कर देती हैं भेंट॥

 
४- दांव पर मुझको लगाया,
क्या मैं कोई वस्तु थी?
राज-पाठ,भाईयों को हार डाला,
धर्म की कैसी यह निर्बल शक्ति थी??

५- अंश और अस्तित्व में,
द्वंद्व जब छिड़ जाता है।
हर सांस को वह बेंच देती,
अंश तब पल पाता है॥