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मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने / ज़ाहिदा जेदी

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मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने
कुछ और थे इस दौर में जीने के करीने

हर जाम लहू-रंग था देखा ये सभी ने
क्यूँ शीशा-ए-दिल चूर था पूछा न किसी ने

अब हल्क़ा-ए-गिर्दाब ही आग़ोश-ए-सुकूँ है
साहिल से बहुत दूर डुबोए हैं सफ़ीने

हर लम्हा-ए-ख़ामोश था इक दौर-ए-पुर-आशोब
गुज़रे हैं इसी तौर से साल और महीने

माज़ी के मज़ारो की तरफ़ सोच के बढ़ना
हो जाओगे मायूस न खो दो ये दफ़ीने

हर बज़्म-ए-सुख़न झूठे नगीनों की नुमाइश
सरताज-ए-सुख़न थे जो कहाँ है वो नगीने