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मार-काट का ज़हर / महेश उपाध्याय
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मार-काट का ज़हर फैलता
अपने आज वतन में
मजहब क्या करवाता ऐसा
सुना न किसी कथन में ।
दंगों, आगजनी के पीछे
सोच हीन होती है
श्रम की गति भी किन्तु तीव्र
होकर महीन होती है
भय की पूरी पढ़ो
कहानी, केवल खुले नयन में ।
अवसर पाकर मार जान से
बस्ती में छिप जाते
जैसा मौक़ा पाते वैसा
ही, हैं रूप बनाते
कैसे घूमें ? उजले
तन ही, डर बैठाते मन में ।