मालिक का छत्ता / आर. चेतनक्रांति
आसमान काला पड़ रहा था
धरती नीली
जब हमारे मालिक ने
अपने मासिक दौरे पर पहला क़दम दफ़्तर में रखा
दफ़्तर में बहुत सारी कोटरें थीं
शुरू में आदमी भरती किए गए थे
मालिक गुज़रा तो
हर कोटर कसमसाई, थोड़ी-सी तड़की
जैसे आकाश में बिजली कौंधी हो
और उनकी उपस्थिति को महसूस किया गया
दूर से देखो तो समाज मधुमक्खियों के छत्ते की तरह दिखाई देता है
बंद और ठोस
लेकिन उसमें रास्ते होते हैं, बहुत सारे छेद
मालिक उन सबसे गुज़रकर यहाँ तक पहुँचा है
उसके बदन से शहद टपक रहा है
सब उसके पीछे हैं
बस, एक चटखारा
हम समर्थ थे
और सुलझे हुए
और नए फ़ैशन के कपड़ों में सजे
लेकिन उस क्षण हमारे ऊपर
हमारा वश नहीं रह गया था
हम किसी भी पल सो सकते थे
हम किसी भी पल रो सकते थे
वे कुछ कह देते तो
हम तालियाँ बजाकर स्वागत करते
लेकिन वे कुछ नहीं बोले
और चले गए।