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माली / मनोज शर्मा

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वह तन्मयता से जुटा है
बाँधा है माथे पर साफ़ा
कमीज़ की दोनों ओर जेब हैं
जिन पर जमी हैं
माटी की पपडियाँ
खुरदरी दाड़ी और
आँखों की लाली लिए
गुड़ाई कर रहा है

ऐसे जुटा है
जैसे माली नहीं, मालिक हो
श्रम का यही कमाल है

वह खिलने जा रहे चाहे में
उग आ रहे अचाहे को
रंबा दिखा रहा है

जिन्होंने वनस्पतियों की सुरक्षा की
जिन्होंने सीधी की धरती की पिचकें
जिन्होंने जाना
चाहे के बीच, कैसे आ जाता है अचाहा
जिन्होंने कमर में कसा गमछा
धरती के माली हैं

ये माली ही हैं
जो माटी की रूह से संवाद करते हैं
कि उनके अपने लहू में दौड़ने लगती है
माटी
ये माटी का तिलक लगाते हैं
उसे सही पहचान दिलाते हैं

वह
तन्मयता से जुटा है
शिखर दोपहरी है
सूख चुकी हैं पक्षियों तक की चोंचें
उसने नए बीज रोपे हैं
दे रहा है पानी
सोंधी हो रही है माटी

क्या इतने ही लीन होकर काम कर रहे हैं
एन. जी.ओ., जिला आयुक्त, मीडिया वगैरह
छोड़ें, सर्वोच्च चौकीदार
नामनुमा संसद भी
है कौन अपने श्रम में, ऐसा ही लीन

एक माली
प्रत्येक उल्लास, उपासना, त्यौहार के लिए
फूल उगा रहा है
सुगंध जगा रहा है
धरती सहला रहा है।