भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मालूम था / दुःख पतंग / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
बरसों तक मानती रही सच
उसे ही
कहते रहे तुम जो भी
कहाँ जान पाई सच को
जिसे छिपाते रहे बार-बार
तुम
बार-बार छिपाते रहे तुम जिस
सच को
कब जानना चाहा मैंने तुम्हारा
अनकहा सच
मालूम था जो
तुम्हें
मालूम था
हमें भी।