बरसों तक मानती रही सच 
उसे ही 
कहते रहे तुम जो भी 
कहाँ जान पाई सच को 
जिसे छिपाते रहे बार-बार 
तुम 
बार-बार छिपाते रहे तुम जिस 
सच को 
कब जानना चाहा मैंने तुम्हारा 
अनकहा सच 
मालूम था जो 
तुम्हें 
मालूम था 
हमें भी।
बरसों तक मानती रही सच 
उसे ही 
कहते रहे तुम जो भी 
कहाँ जान पाई सच को 
जिसे छिपाते रहे बार-बार 
तुम 
बार-बार छिपाते रहे तुम जिस 
सच को 
कब जानना चाहा मैंने तुम्हारा 
अनकहा सच 
मालूम था जो 
तुम्हें 
मालूम था 
हमें भी।