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मालूम नहीं उनको ये मैं कौन हूँ, क्या हूँ / साग़र पालमपुरी

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मालूम नहीं उनको ये मैं कौन हूँ, क्या हूँ

सहराओं के सन्नाटों में इक शोर—ए सदा हूँ


कितने ही मुसाफ़िर यहाँ सुस्ता के गये है

मैं मील के पत्थर —सा सर—ए—राह खड़ा हूँ


इक ख़्वाब—ए—शिकस्ता हूँ मैं फिर जुड़ नहीं सकता

माना कि कभी उनकी निगाहों में रहा हूँ


उस शहर—ए—निगाराँ में मैं लौट आया हूँ आख़िर

जो अहद किया था कभी अब भूल चुका हूँ


आवाज़ के पत्थर से न तुम तोड़ सकोगे

आईना नहीं यारो ! मैं गुम्बद की सदा हूँ


वो और थे जो ख़ाक हुए बर्क़—ए—नज़र से

मैं अपनी ही साँसों की हरारत से जला हूँ


जुगनू नहीं मुझको वो हथेली पे न रक्खे

जलता है जो तूफ़ाँ में वो मिट्टी का दिया हूँ


वो भूल गये हों मुझे ये हो नहीं सकता

‘साग़र’! मैं सदा जिनके ख़्यालों में रहा हूँ