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मालूम है मुझे की चाँद दागदार है / मोहम्मद इरशाद
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मालूम है मुझे की चाँद दागदार है
रूसवा करूँ मैं कैसे बचपन का यार है
वो लोग फिक्रमन्द हैं जिनको मिले हैं गुल
मैं मुतमईन हूँ मेरे हिस्से में ख़ार है
आके खड़ी है ज़िन्दगी अपना बढ़ा तू हाथ
क्या सोचता है तुझको किसका इंतज़ार है
उसने लगाया था कभी मेरे घर के सामने
शक्ले शजर में उसकी ताज़ा यादगार है
दुनिया है उनके साथ तो इसकी ना फिक्र कर
‘इरशाद’ तेरे साथ तो परवर दिगार है