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माशो की माँ / अशोक चक्रधर
Kavita Kosh से
नुक्कड़ पर माशो की माँ
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियाँ हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेव हैं,
सेव भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयाँ
--आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आँखों से
अठन्नी का ख़रा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती है टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।
--गाहक की तुष्टि होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-- आती है
सूर्य ढला-- जाती है
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की माँ।