माहिए (21 से 30) / हरिराज सिंह 'नूर'
21. दुनिया से जो दूरी है
सिर्फ़ तिरे कारण
हस्ती भी अधूरी है
22. ग्वालों की जो टोली में
श्याम! चले आते
आता मज़ा होली में
23. तुझको ही बुलाती हैं
कृष्ण! तिरी गायें
जिस वक़्त रँभाती हैं
24. गंगा वही सरिता है
स्वर्ग से उतरी जो
धन-धान्य की कविता है
25. ‘बाबा’ तिरी झोली में
यूँ तो बहुत कुछ है
क्यों नीम है बोली में
26. रोका है अँधेरे को
दीप ने जलकर ही
देखा है सवेरे को
27. किस तरह की बाज़ी है
हार के जीते जो
सच्चा वही ग़ाज़ी है
28. कुछ भी नहीं खोना है
इश्क़ की बाज़ी में
किस बात का रोना है
29. चंदन में, न रोली में
जन्म लें आशाएं
अहसास की झोली में
30. सपने ही तो सजते हैं
पर्व पे होली के
सौ रंग उपजते हैं