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मिजळी नीं जमीं / विनोद कुमार यादव

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माळी रूंख लगायो
रूंख पण बध्यो नीं
सावळ सध्यो नीं
सींच्यो
फिर्यो गाणी-माणी
खूब दिया खाद-पाणी
करी चाकरी
पण
धरती स्या नीं करी।

रूंख करै हथायां
आभै सूं
काढ-काढ डाळी
फूल-पानका
पण फळै नीं
माळी भी सेवा सूं टळै नीं
छेकड़ होग्यो आखतो
दी फींच में
रूंख बाढ बगायो।

माळी मसळ हाथ
झूरै भाग नै
म्हारी मैनत में
काईं है कमी
मिजळी भी नीं है जमीं
म्हारै हाथ ओ मिजळो रूंख
बताओ क्यूं आयो ?