भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिटा नहीं तुम्हारे होने का जादू / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
तुम्हारी छवि दीप्त हो उठती है
दुख के इन दिनों में
कहीं नहीं हो तुम
पर तुम्हारे होने का जादू अब भी है
भावना के वे दिन बीत गए
रंग से सराबोर दिशाएँ घुल गई
रात के वीरान रहस्यों में
कोई एक पुकार
खो गई
मिट गया कोमलता का पूरा एक संसार
जीवन दुख की कथाएँ लिखता रहा
जिन हवाओं में तुम्हारे होने का गीत था
उनमें सिर्फ़ वीरानी बची
चैत के पत्तों का गिरना
और धूसर पलाश बचे वसंत के वन में
गहरे दुखों की लकीरें छूट गईं
बदल गया कितना कुछ
पर क्यों नहीं मिटा
तुम्हारे होने का जादू?