मिथक / कुमार विकल
मैं बाहर आता हूँ.
भीतर लड़ते—लड़ते थक गया हूँ
अब मैं बाहर आता हूँ.
मेरे नंगे अरक्षित शरीर को
एक सुरक्षित जगह की ज़रूरत है.
अकेला आदमी जब
एक तंत्र के खिलाफ़ लड़ता है
तो अपने सारे हथियारों के बावजूद
एक काले पहाड़ से
निहत्थी ही लड़ाई लड़ता है
और अंत में एक दिन
अपने ही लहूलुहान चेहरे से डरता है.
इस तरह छोटी—छोटी अकेली लड़ाइयाँ लड़ते हुए
कितने ही हाथों से हथियार छूट जाते हैं
और एक फ़ैसलाकुन लड़ाई से पहले ही
कितने बुलंद हौसले टूट जाते हैं.
इन्हीं टूटे हुए हौसलों से
अरक्षित आदमी का जन्म होता है
और जब एक अरक्षित आदमी
एक इमारत से दूसरी इमारत
एक शहर से दूसरे शहर
एक शिविर से दूसरे शिविर तक
भटक रहा होता है
तो दुश्मन आराम से सोता है.
वह अरक्षित आदमी की नियति को जानता है
उसकी सारी संभावनाओं को पहचानता है.
वह सिर्फ़ एक संभावना से डरता है
और उसे टालने के लिए
कई मिथकों की रचना करता है
जैसे जनता एक अंधी भीड़ है
जैसे भीड़ में आदमी अकेला है
जैसे भीड़ में मरे हुए आदमी की गंध आती है
जैसे भीड़ पशुओं का एक मेला है.
मैं इन सभी मिथकों को तोड़ूँगा
और अपने नंगे अरक्षित शरीर को
हज़ारों लाखॊं करोड़ों से जोड़ूँगा.
अब मेरे सामने—हज़ारों लाखों हम्दर्द चेहरे हैं
जो मेरे नंगे श्रीर की हिफ़ाज़त कर रहे हैं
और दुश्मन ख़िलाफ़—
एक सामूहिक लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं.
जनता एक बरगद है
जिसकी घनी छाँह में
सुरक्षा—बोध होता है
जनता एक जंगल है
जिसमें कोई ‘प्रथम—पुरुष’
क्राँति—बीज बोता है.
जनता एक बहुमुखी तेज़ हथियार है
जो अकेली लड़ाइयों को आपस में जोड़ता है
दुश्मन के व्यूहचक्रों को तोड़ता है.
जनता एक आग है
जो राजमहल जलाती है
ठंडे घरों में कच्ची रोटी पकाती है.
जनता एक दरिया है
जो काले पहाड़ को
तोड़—तोड़ आता है
गुरिल्ला नदियों के संग
क्रांति— गीत गाता है.
जनता असंख्य आँखों
वाली अदम्य शक्ति है
‘मिथकों’ की रचना—
हताश मन की अभिव्यक्ति है.