मिरा जौक़-ए-मुहब्बत देखिए क्या गुल खिलाता है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
मिरा ज़ौक़-ए-मुहब्बत देखिए, क्या गुल खिलाता है
ख़ुशी पर डूबता है दिल, ग़मों पर मुस्कराता है
हरीम-ए-नाज़ है ये! एक आता एक जाता है
तमाशा नित-नया शाम-ओ-सहर कोई दिखाता है!
गिला कैसा, शिकायत किस की और कैसी ये बे-कैफ़ी?
यही होता है मेरी जाँ!किसी पर दिल जो आता है
रह-ए-उल्फ़त का हर ज़र्रा मिरा हमराज़-ओ-मूनिस है
फ़साना कोई कहता है, ग़ज़ल कोई सुनाता है!
तुम्हारे बाद जो बीता ज़माना, ज़िक्र क्या उसका
तुम्हारे साथ जो गुज़रा ज़माना, याद आता है!
असीर-ए-ज़िन्दगानी हूँ गिरिफ़्तार-ए-ज़माना हूँ
मिरा हर तार-ए-हस्ती इक नया नौहा सुनाता है
दर-ओ-दीवार में ऐसी बसी है बू-ए-जानाना
मैं जितना भूलना चाहूँ, वो उतना याद आता है
ज़माना-साज़ तू होता अगर "सरवर" तो अच्छा था
मज़ाक़-ए-सादा तेरा कब किसी को रास आता है!