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मिरी ज़िन्दगी कट गई धूप में / रमेश तन्हा

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मिरी ज़िन्दगी कट गई धूप में
मैं चलता रहा हूँ कड़ी धूप में।

खिली क्या ग़ज़ल की कली धूप में
हुमकने लगी ज़िन्दगी धूप में।

जो हैं राहतें अध-खिली धूप में
कहां चिलचिलाती हुई धूप में।

अभी तक तजस्सुस अंधेरों में है
कहां आये हैं हम अभी धूप में।

ख़याल आ गया अपनी तन्हाई का
कभी आ गये जो खुली धूप में।

वो साये से लड़ता रहा उम्र भर
मगर कर गया खुदकुशी धूप में।

हमेश तआकुब में साये रहे
किसी को अमां कब मिली धूप में।

मटर गश्तियां कोई करता भी क्या
बयाबां बयाबां सड़ी धूप में।

सुकूं के सहीफ़े उतरने लगे
सजल सुब्ह की मलगिजी धूप में।

लड़कपन की शोख़ी दहकने लगी
जवानी की चढ़ती हुई धूप में।

यह ठंडी, मगर जागती दोपहर
यह बिखरी हुई नग़मगी धूप में।

फ़ज़ा भर महक इक बदन की उड़ी
खुनक शाम की संदली धूप में।

किसी जिस्म की छूट लौ दे उठी
दरख़्तों से छनती हुई धूप में।

दिलों में जगी एक मीठी अगन
शबे-माह की मरकरी धूप में।

लहू की तमाज़त से पिघले बदन
मिलन की पुर-असरार सी धूप में।

जो देखा बहुत पत्थरों का तपाक
पिघलने लगी बर्फ भी धूप में।

हरिक शय ने अपनी क़बा खोल दी
सहर की तजस्सुस भरी धूप में।

सिवा अपने साये के था और कौन
रही जिसकी हमसायगी धूप में।

मैं सूरज न था फिर भी जलता रहा
कभी छांव में और कभी धूप में।

पलटने परिंदे बहक जाएंगे
न छेड़ो ग़ज़ल लौटती धूप में।

कोई सर-बरहना कहां तके फिरे
मई जून की सर फिरी धूप में।

वो मजबूर था, उसको चलना पड़ा
शजर से अमां मांगती धूप में।

मैं 'तन्हा' घनी छांव को छोड़ कर
कहां आ गया हांफती धूप में।