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मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझको / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मिरी जां अब भी अपना हुस्न फेर दे मुझको
अभी तक दिल में तेरे इश्क की कन्दील रौशन है
तिरे जलवों से बज़मे-ज़िन्दगी जन्नत-ब-दामन है
मिरी रूह अब भी तन्हायी में तुझको याद करती है
हर इक तारे-नफ़स में आरज़ू बेदार है अब भी
हर इक बेरंग साअत मुंतज़िर है तेरी आमद की
निगाहें बिछ रही हैं रास्ता ज़रकार है अब भी

मगर जाने-हज़ीं सदमे सहेगी आख़िरश कब तक
तिरी बे-मेहर्यों पे जान देगी आख़िरश कब तक
तिरी आवाज़ में सोयी हुयी शीरीनीयां आख़िर
मिरे दिल की फ़सुरद खिलवतों में न पायेंगी
ये अश्कों की फ़रावानी में धुन्दलायी हुयी आंखें
तिरी रानाईयों की तमकनत को भूल जायेंगी

पुकारेंगे तुझे तो लब कोई लज़्ज़त न पायेंगे
गुलू में तेरी उल्फ़त के तराने सूख जायेंगे

मबादा यादहा-ए-अहदे-माज़ी महव हो जायें
ये पारीना फ़साने मौजहा-ए-ग़म में खो जायें
मिरे दिल की तहों से तेरी सूरत धुल के बह जाये
हरीमे-इश्क की शमअ-ए-दरख़शां बुझके रह जाये
मबादा अजनबी दुनिया की ज़ुल्मत घेर ले तुझको
मिरी जां अब भी अपना हुस्न फेर दे मुझको