मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो / नवीन सी. चतुर्वेदी
मिरी दीवानगी पर वो, हँसा तो
ज़रा सा ही सही लेकिन, खुला तो
अजूबे होते रहते हैं जहाँ में
किसी दिन आसमाँ फट ही पड़ा, तो?
हवस कमज़ोर करती जा रही है
ज़मीं निकली, फ़लक भी छिन गया, तो?
न यूँ इतराओ नकली जेवरों पर
कलई खुल जायेगी छापा पड़ा, तो
उमीदों का दिया बुझने न देना
जलेगी जाँ अगर दिल बुझ गया, तो
सभी को चाहिये अपना सा कोई
घटेंगे फ़ासले, निस्बत – ‘बढ़ा तो’
सुना है तुमको सब से है मुहब्बत
अगर हमने तुम्हें झुठला दिया, तो?
वो दुनिया भर में भर देंगे उजाले
अगर मग़रिब से कल सूरज उगा – तो
मैं उसको पेश तो कर दूँ जवाहिर
मगर उसकी नज़र में दिल हुआ, तो?
सफ़ीने क्यूँ हटा डाले नदी से?
पुराना पुल अचानक ढह गया, तो?
नहीं कह पाना मुमकिन ही न होगा
दिया अपना जो उसने वासता, तो
ग़ज़ल सुनते ही दिल बोला उछल कर
अरे क्या बात है! फिर से – सुना तो