भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
मिलजुल के जब क़तार में चलती हैं चींटियाँ।
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ।
मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी,
तीखी ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ।
आँचल न माँ का सर पे न साया है बाप का,
जीवन की तेज़ धूप में पलती हैं चींटियाँ।
चलना सँभल के राह में, जाएँ न ये कुचल,
खाने कमाने रोज़ निकलती हैं चींटियाँ।
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई,
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ।