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मिलन-विरह / ज्ञान प्रकाश सिंह

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गहन निशा के मृदु अंचल में, किसी पथिक की स्वर लहरी सा,
 तेरा अंचल पट लहराता ।

आँखों की गहरी अरुणाई और नींद से बोझिल पलकें
अलसाया सा गात तुम्हारा, क्या बतलातीं उलझी अलकें
और याद कर मिलन क्षणों को,
संध्या में रवि के ढलने पर, जलने वाले प्रथम दिये सा,
तेरा मुख रक्तिम हो उठता ।
 
तुम्हारी हाव भाव की रीति और मन में लिपटी इक आस
तुम्हारी दृष्टि गगन के पार, गीत में आतुरता का वास।
और सोच कर विरह क्षणों को,
किसी नदी के सूने तट पर, आकर टकराती तरंग सा,
तेरा रूप बिखरता जाता।