मिला नहीं अवकाश तनिक भी,
अंतर्यामी को उपासने का;
अपने इस अनगढ़ गँवार को,
जीभर गढ़ने औ तराशने का।
बाहर निकल गए तो देखा फिर किसने मुड़कर?
हासिल करते रहे स्वतः को इन-उनसे जुड़कर।
मुखर विरोधाभास राह में,
विडम्बनाओं के प्रवाह में-
अवसर ही कब मिला वहाँ-
रोगदोख को भी कराहने का?
धूल-धूसरित धरम, कुहासे, दीनोपंथ से तो भर पाई,
ठोक रहे हैं दावे नालिश भाई के ऊपर ही भाई,
रहा किसी का कारिंदा तो,
हो बैठा मुख्तार कहीं पर,
बोने की एवज केवल-
पाप किया तौजी उगाहने का।
मिली न हो स्पष्ट दृष्टि पर, आँखें खुली दृश्यबंधों से,
दुर्गम है पथ अब भी, लेकिन अब न गिरेंगेहम अंधों-से;
मिला बहुत-कुछ मिलने को
नहीं मिले का क्या पछतावा?
अवसर मिला न गंगोजमुन को
धुर कावेरी में प्रवाहने का।