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मिलूँ गर मेरे मन से मन मिलते हो मदनमोहन / बिन्दु जी

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मिलूँ गर मेरे मन से मन, मिलते हो मदनमोहन,
जिऊँ गर जान ख़ुद बनकर जिलाते हो मनमोहन।
नहीं इस चित्त चंचल कि अलख लखने की ख्वाहिश है,
लखूं गर सांवली सूरत लाखाते हो मनमोहन।
नहीं काबिल हूँ मैं इसके कि अनहद नाद को सुन लूँ,
सुनूं गर रस भरी मुरली सुनाते हो मनमोहन।
तपस्या है नहीं इतनी कि योगी सिद्ध बन जाऊँ,
बनू गर अपना लय प्रेमी बनाते हो मनमोहन।
नहिं ताकत है ब्रम्हानन्द के एक ‘बिन्दु’ पीने की,
पिऊँ गर प्रेम के प्याले पिलाते हो मनमोहन।