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मिले ग़र न दिल तो करूँ दोस्ती क्या / कैलाश झा 'किंकर'

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मिले ग़र न दिल तो करूँ दोस्ती क्या
वजह कुछ नहीं तो करूँ दुश्मनी क्या।

चिराग़ों को जलने में क्या सुख मिला है
मगर बिन जले मिटती है तीरगी क्या।

नकल के लिए भी अकल चाहिए ही
अकल के बिना आदमी-आदमी क्या।

नहीं मेरे दिल में जगह पा सकोगे
ग़लत को कभी कह सकूँगा सही क्या।

हजारों हैं रस्ते, हजारों हैं मंज़िल
मगर अपनी मंज़िल बदलती नदी क्या।