मिल मज़दूर / महेन्द्र भटनागर
लम्बी-लम्बी
चैड़ी-चैड़ी
हलकी नीली
कुछ मटमैली
गड्ढ़ों वाली
टूटी-टूटी
डम्बर की सड़कें
रोज़ सबेरे तड़के
मीलों के उन
मज़दूरों से
ख़ूब खचाखच
भर जाती हैं !
अगणित नारी,
बालक, नर
रोटी लेकर
हँस-हँस कर
जल्दी-जल्दी
सिर्फ़ मशीनों की
धुनबुन में
बढ़ते जाते हैं
रोज़ क़तारों में !
उस काले-काले
इंजन-सा ही
जिनका जीवन
धड़-धड़ करता
दौड़ रहा है !
किस्मत अपनी
फोड़ रहा है !
मैले-मैले
कपड़े पहने,
वे क्या जानें
कैसे गहने ?
कपड़ों के निर्माता
वैभव के निर्माता
पर अध-नंगे
और अचानक
एक दिवस फिर
आहें भर कर
होकर जर्जर
भूखे नंगे
चल देते हैं
स्वर्ग-पुरी को !
बेहद महँगा
जिनका बनता
मरघट का क्रम !
ऐसे मानव
बालों में भर
कानों में भर
रूई के कण,
आँखें मलकर
डगमग करते
बढ़ते जाते,
जीवन से डट
लड़ते जाते,
पर्वत छाती
चढ़ते जाते,
टीले ऊँचे
खंदक नीचे
चलते जाते,
गरमी सरदी
वर्षा ओले
तन को खोले
औ’ बिन बोले
जीवन भर औ’
हँस-हँस कर
आघात निरंतर
भीषण तर
सहते जाते !
आबाद रहे
यह धरती भी
हर रोज़ भरें
ये राहें सब,
हर रोज़ छुए
यह धूल चरण
इन मानव की
इस महिमा पर !