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मीठी उदासी / विनोद भारद्वाज
Kavita Kosh से
मैं एक उजाड़ में खड़ा था
मैं घर लौटना चाहता था
मुझे अचानक एक उदासी मिल गई
बोली, मैं भी अब थक गई हूँ इस भयावह उजाड़ से
मुझे अपने कन्धे पर बैठाकर ले चलो
उस हरे रसीले मैदान में
जिसे तुम अपना प्यारा - सा घर कहते हो
मुझे लगा उसका वज़न ज़्यादा नहीं है
ले चलता हूँ इस बेचारी को
मुझे क्या पता था कम्बख़्त मेरे ही घर को हथिया लेगी
मैं अपने घर में ही क़ैद था
उदासी अब कभी-कभी ज़ोर से हँसने भी लगी थी
और, बस, एक दिन एक अल्बम मुझे मिल गई
तुम्हारी तस्वीरों की
मैं अब एक दूसरी उदासी में क़ैद था
एक मीठी उदासी
और उससे मैं ख़ुद ही बाहर नहीं आना चाहता था ।