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मीरास बे-बहा भी बचाई न जा सकी / अमीर हम्ज़ा साक़िब

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मीरास बे-बहा भी बचाई न जा सकी
इक ज़िल्लत-ए-वफ़ा थी उठाई न जा सकी

वादों की रात ऐसी घनी थी सियाह थी
क़िंदील-ए-ऐतबार बुझाई न जा सकी

चाहा था तुम पे वारेंगे लफ़्ज़ों की काएनात
ये दौला-ए-सुख़न की कमाई न जा सकी

वो सहर था के रंग भी बे-रंग थे तमाम
तस्वीर-ए-यार हम से बनाई न जा सकी

हम मदरसान-ए-इश्क़ के वो होनहार तिफ़्ल
हम से किताब-ए-अक़्ल उठाई न जा सकी

वो थरथरी थी जान-ए-सुख़न तेरे रू-ब-रू
तुझ पर कही ग़ज़ल भी सुनाई न जा सकी